हो भाषा के महान साहित्यकार तथा वारंचिती लिपि का आविष्कारक लको बोदरा का बायोग्राफी(Lako Bodra Biography) लोग जानना चाहते हैं। हो समाज और हो भाषा के उन्नति के लिए अपने जीवन को समर्पित करने वाले यह महान साहित्यकार के बारे में जैसे उनका जीवन परिचय, जन्म तारीख, उनका मृत्यु तारीख, कार्यक्षेत्र आदि लोग जानना चाहते हैं और इंटरनेट पर सर्च कर रहे हैं।
इस लेख में इन महान लेखक साहित्यकार लको बोदरा जी के जीवन परिचय(Lako Bodra Biography), पत्नी परिवार और ‘हो’ समाज प्रति उनका समर्पित जीवन के बारे में बताएंगे। इस लेख को पढ़िए और अपना कॉमेंट साझा कीजिएगा ताकि कोई गलती हो गई तो सुधारा जा सके।
लको बोदरा का जीवन परिचय | Lako Bodra Biography in Hindi
लको बोदरा जी के जन्म 19 सितंबर 1919 को अभी का राज्य झारखंड के पश्चिम सिंहभूम के ‘पासेया’ गांव में हुआ था। इनके पिता का नाम लेबेया बोदरा था और माता का नाम जान कुई था।
नाम | लको बोदरा |
जन्म | 19 सितंबर 1919 |
मृत्यु | 29 जून 1986 |
माता | जान कुई |
पिता | लेबेया बोदरा |
जन्म स्थान | पासेया, पश्चिम सिंहभूम, झारखंड |
शिक्षा | होम्योपैथी में डिग्री |
कार्य | समाज सेवा, साहित्य रचना |
कार्य उपलब्धि | वरंग चिती की खोज, का स्थापना |
लको बोदरा का प्रारंभिक जीवन और शिक्षा ।
ऑत गुरु लको बोदरा साहब का प्रारंभिक शिक्षा बड्चोम हातु गांव प्राथमिक विद्यालय से शुरू हुआ। बादशाह महत्त्व, गांव से लगभग 3 किलोमीटर दूर था और अकेला ही जंगल रास्ता पार करके जाता था। यह विद्यालय रिकॉर्ड के अनुसार 1882 में स्थापित हुआ था और कक्षा तीन तक ही था । लोग उनके पिताजी को अजीब सवाल पूछा करते थे और कहते थे “चिए लेबेया, होन चिए दन’म आगुए काःइए“। क्योंकि लको बोदरा पढ़ाई में बहुत तेज था।
प्राथमिक शिक्षा के बाद उन्होंने पूरूए हातु(अभी का पूरुणिया) विद्यालय में प्रवेश लिए और आठवीं कक्षा तक की पढ़ाई खत्म किया। उन्होंने आठवीं कक्षा के बाद का पढ़ाई मामू के घर चक्रधरपुर में के लिए उनका माता-पिता भेज दिए और मामू दामु दंग के साथ रह कर पढ़ाई किया। चक्रधरपुर के ग्रामर हाई स्कूल में नौवीं कक्षा के लिए दाखिला लिया ।
यह एंग्लो इंडियन स्कूल था जिसमें अंग्रेजी बच्चे पढ़ा किया करते थे। इसमें एक आदिवासी बच्चा लाको बोदरा जी भी दाखिला लिया। उनके साथ पूरा हाथ के राजा राजा के पुत्री राजकुमारी शशांक मंजरी भी पढ़ा करती थीं। उन्होंने लाको बोदरा के पढ़ाई और बांसुरी वादन से प्रभावित होकर, उनको पोड़ाहाट राजमहल लेकर आते थे और वहीं राजमहल के लाइब्रेरी में लाको बोदरा पढ़ा करते थे। लको बोदरा का मधुर आवाज का बांसुरी भी राज महल में गूंजती थी।
नौवीं कक्षा के बाद और अधिक पढ़ने और मैट्रिकुलेशन के लिए उन्होंने चाईबासा के डिस्ट्रिक्ट हाई स्कूल में दाखिला लिया। यह एकमात्र जिला में एक मात्र हाई स्कूल था। और उसमें हॉस्टल भी था जिसमें उन्होंने रहा।
मैट्रिकुलेशन खत्म होने के बाद उन्होंने जयपाल सिंह मुंडा के सहयोग से पंजाब के जालंधर शहर के लिए रवाना हुए और जालंधर सिटी कॉलेज में दाखिला लेने के बाद होम्योपैथी में स्नातक डिग्री हासिल किया और इसमें काम किया।
प्रोफेशनल लाइफ
1941 जब द्वितीय विश्व युद्ध चल रहा था अभी पंजाब में सैनिक रिक्रूटमेंट चल रहा था। उस समय जैपाल सिंह मुंडा आदिवासी के बहुत बड़े नेता थे। उनके नेतृत्व में लाको बोदरा पंजाब गए और सैन वाहिनी में काम किया। उसी समय पंजाब में पढ़ाई किया और होम्योपैथी डिग्री हासिल करके काम किया।
1942 में लौटकर उन्होंने दंगुआपोसी में रेलवे में स्टोर कीपर के रूप में 5 साल तक काम किया।
लको बोदरा का वारंग क्षिती आविष्कार और इसका प्रचार
लाको बोदरा शुरू से ही पढ़ाई में तेज थे। कहा जाता है, जब उन्होंने चाईबासा में रहकर हाई स्कूल का पढ़ाई कर रहे थे तभी से उनका रुचि साहित्य और कविता में आ चुका था। उन्होंने हाई स्कूल के वार्षिक उत्सव में अब के आदिवासी नेता जयपाल सिंह मुंडा जीके सामने एक कविता गा रहे थे, तभी जयपाल सिंह मुंडा का नजर उन पर आए। लको बोदरा के कविता से जयपाल सिंह मुंडा जी बहुत प्रभावित हुए और उन्होंने सहयोग का हाथ बढ़ाया था। उनके सहायक से लको बोदरा जी जालंधर में पढ़ाई की।
कहा जाता है पढ़ाई के दौरान ही उन्होंने हड़प्पा और मोहनजोदारो चले गए थे और वहां लिपि संबंधित विभिन्न सामग्री को देखा। वहां एक साल रहने के बाद उन्होंने वापिस अपना प्रदेश लौट आया और डांगुआपोषी में 5 साल के लिए रेलवे में स्टोर कीपर का नौकरी की। नौकरी के दौरान उन्होंने अपने साथी कर्मचारी के सामने वारंग क्षिती का खुलासा किया। विभिन्न प्रयोग के माध्यम से उन्होंने अपने साथी कर्मचारी को समझाते थे।
इन्होंने नौकरी के दौरान पास के गांव जाकर लोगों को वाराणसी बारे में समझाया और उनको सिखाया। 5 साल का नौकरी के बाद उन्होंने वाराणसी को बढ़ावा देने के लिए, इसका प्रचार प्रसार में अपना जीवन को समर्पित किया।
वाराणसी पिक प्रचार प्रसार करने के लिए उन्होंने दो बार इलेक्शन भी लड़े कांग्रेस की तरफ से पर दोनों ही भर असफल रहे। इसके चलते वाराणसी टी का प्रचार प्रसार में दुष्प्रभाव पड़ रहा था तो उन्होंने राजनीति भी छोड़ दी।
1953 में जोड़ापोखर, झिंकपानी में, आंकड़ा का स्थापना किया और ‘आंअ: ईपि्ल’ नामक प्रेस का निर्माण किया।1954 में इसके प्रचार प्रसार के लिए उड़ीसा और बंगाल का के जगह गमन की।
1958 में तत्कालीन कांग्रेस एमएलए टीवी बोदरा के साथ तत्कालीन भारत के प्रधानमंत्री श्री जवाहरलाल नेहरू जी के साथ मुलाकात की, हो भाषा और वारंग क्षिती लिपि के बारे में बताया।
1976 में पुनः तत्कालीन एमएलए बलराम पाठ पिंगुआ और अन्य के साथ दिल्ली गए और अखिल आदिवासी भारतीय सांस्कृतिक समारोह में तत्कालीन भारत के प्रधानमंत्री श्रीमती इंदिरा गांधी से मिले और हो भाषा और वारंग क्षिती के बारे में बताया। इंदिरा गांधी ने लाको बोदरा को चीफ ऑफ द चीफ सम्मान और गोल्ड मेडल्स से सम्मान किया।
‘हो समाज’ में स्वीकृति मिलने के लिए 6 लिपि आए थे। उनमें से वारंग क्षिती लिपि को 1984 के जोड़ा मीटिंग में सामाजिक स्वीकृत मिला। 1986 सिंगडा, मयूरभंज, मीटिंग में वाराणसी टिको और समाज के तरफ से पूर्ण रूप से सामाजिक स्वीकृति मिला और यह मीटिंग लको बोदरा जीके शेष मीटिंग था।
लको बोदरा जीके वैवाहिक जीवन और परिवार
लको बोदरा जी ने उनकी फूफा की बड़ी बेटी जानकी पूर्ति से शादी की थी। लको बोदरा जीके कोई भी साला नहीं था इसलिए उनको घर जमाई रहने के लिए बोला गया था। लको बोदरा के दो बेटे थे
लको बोदरा का मृत्यु:
29 जून 1986 को टाटा मैन हॉस्पिटल, जमशेदपुर में, 66 साल के उम्र में उनका निधन हुआ। गांव के रिवाज के अनुसार उनको उनके गांव पास या लाया गया और शेष कृति संपन्न किया गया।
लको बोदरा का उपलब्धियां
उन्होंने 1939 कोई वाराणसी थी लिपि को आविष्कार किया था और सजाया था।
उन्होंने तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू जी 1958 मिले और उसी वर्ष पंप नामक पुस्तक को पब्लिश्ड किया। यह किताब चींटी के आधारित था और केस आइए उत्पन्न हुआ और प्रत्येक अक्षर का माने इसमें वर्णन था।
उन्होंने प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी से भी मिले और वारंग क्षिती लिपि अष्टम अनुसूची में शामिल करने को अनुरोध किया।
लको बोदरा का किताबें
बचपन से ही लाको बोदरा का धर्म और साहित्य में रुचि था। पढ़ाई के दौरान और बाद में उन्होंने कई सारा कविता और साहित्य का रचना किया। उसी दौरान उन्होंने अनुभव किया कि हो भाषा के साहित्य के लिए अपना हो भाषा का लिपि होना चाहिए। उन्होंने वारंग क्षिती का आविष्कार और सजाया। इसके अलावा कइ ओर साहित्य रचना की। इसमें से सरस्वती गोवारी, बाह्य बुरु -बोंगाबुरु , कॉल रूल,हालंग हलपुंग , सहर होरा, एला ऑल इतु उता ,होरबारा, होमोयोम पुती , रघुवंश ,पोमपो , हो बकणा, सीशु हालंग प्रमुख है।
लको बोदरा पर विवाद
लको बोदरा शुरू से ही धार्मिक थे और वह धर्म को बहुत ज्यादा महत्व देते थे। उनकी मृत्यु के बाद उनके अनुयायियों ने धर्म को लिपि से जोड़ दिया। हालांकि उन्होंने कभी भी धर्म से नहीं जोड़ा। उन्होंने कहा दुपुब दस्तूर यानी कि सबसे पुरानी दस्तूर के बारे में कहा।
दूसरा विवाद उनका जन्मदिन पर आते हैं। रिपोर्ट के अनुसार उनका जन्म 19 सितंबर 1919 में हुआ था। लेकिन उनका उनका मानना है उनका जन्म यह तारीख असली नहीं है। उनका माता-पिता को भी उनका जन्म तारीख याद नहीं था। स्कूल के हेडमास्टर अपने मनमर्जी से इस तारीख को एडमिशन रजिस्टर में लिखा और यही तारीख को आज मनाते हैं।
निष्कर्ष में यह लिखना चाहेंगे कठिन से कठिन परिस्थिति में भी, कार्य प्रति निष्ठा होने पर वह कार्य आसान हो जाता है। उन्होंने कई दशकों तक इस लिपि को समाज में स्वीकृति दिलाने के लिए संघर्ष किया और सफल रहे। अंततः उनका लिपि वाराणसी 1986 में हो समाज द्वारा् स्वीकृति मिला। यह लेख ( Lako Bodra Biography in Hindi )आपको कैसा लगा कमेंट में जरूर बताइएगा। हमारे यूट्यूब चैनल से जुड़ने के लिए हॉ दीसम(HO DISOM) यूट्यूब चैनल को सब्सक्राइब करें।
Lakon Bodra Biography in Hindi-बार बार पूछे जाने सवाल (FAQ)
लको बदरा कौन हैं ?
लको बदरा हो समाज के प्रमुख लेखक और वारंगचिती (हो लिपि ) के अबिस्कारक हैं ।
लकों बोदरा के पत्नी कौन है ?
जानकी पुरती
लकों बोदरा के कितने बच्चे थे ?
2 बेटा
लको बोदरा जी को इंद्रा जी हाथों से कौन सा सम्मान मिला था?
चीफ ऑफ दी चीफ सम्मान